काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी - Heritage my India

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Sunday, July 8, 2018

काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी

काशी विश्वनाथ मंदिर प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में से एक है जो भगवन शिव को समर्पित है। काशी विश्वनाथ मंदिर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी में स्थित है। ये मंदिर पवित्र गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है और भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के मुख्य देवता विश्वनाथ और विश्वेश्वरा के नाम से जाने जाते है जिसका अर्थ होता है ब्राह्माण के शासक। वाराणसी को काशी के नाम से भी जाना जाता है इसलिए ये मंदिर मुख्य तौर पर काशी विश्वनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है।
इस मंदिर का उल्लेख बहुत लम्बे समय से हिन्दू धर्मग्रंथो में किया गया है और शिव जी के दर्शन के लिए पूजा का केंद्र भी माना जाता है। इतिहास काल में कई बार इस मंदिर को नष्ट किया गया और इसका दुबारा निर्माण किया गया। पिछली संरचना को औरंगजेब, छठे मुग़ल सम्राट जिन्होंने ज्ञान वापी मस्जिद का निर्माण करवाया था ने नष्ट किया था। वर्तमान संरचना का निर्माण सं 1780 में इनडोर के मराठा राजा, अहिल्या बाई होल्कर ने करवाया था।
1983 के बाद से, इस मंदिर की व्यवस्था उत्तरप्रदेश की सरकार द्वारा की जा रही है। धार्मिक अवसर जैसे शिवरात्रि, पर काशी नरेश (काशी के राजा) जो प्रमुख कार्यवाहक पुजारी है के अलावा मंदिर के गर्भ गृह में कोई अन्य व्यक्ति और पुजारी प्रवेश नहीं कर सकते। धर्मिक कार्यो को पूर्ण करने के पश्चात कोई भी मंदिर में प्रवेश कर सकता है। हिन्दू पौराणिक कथाओ के अनुसार, भगवान शिव ने देवी पार्वती से महाशिवरात्रि के दिन शादी की थी और रंगभरी एकादशी के दिन गौना (विवाह की समाप्ति के बाद की जाने वाली एक रस्म) किया था। काशी के निवासी इस अवसर पर एक भव्य अवसर का आयोजन करते है।
परंपरा के अनुसार, भक्तजन भगवान शिव और देवी पार्वती की प्रतिमाओं को पालकियों में उठाकर काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत के घर ले जाते है। इस दौरान वे शंखो, डमरू और बाकी वाद्य यंत्रो को बजाते है, भक्त विश्वनाथ मंदिर के गर्भ गृह के पास जाते है और उनकी मूर्तियों पर गुलाल और गुलाब की पंखुड़ियों को अर्पित करते है।

इतिहास :

इस मंदिर का उल्लेख कई पुराणों में किया गया है जिसमे स्कन्द पुराण का काशी खण्ड भी समिल्लित है। मूल विश्वनाथ मंदिर को सं 1194 CE में कुतुब-उद-दीन ऐबक की सेना ने नष्ट कर दिया था, जब उन्होंने मोहमद घोरी के कमांडर के रूप में कन्नौज के राजा को पराजित कर दिया था। इस मंदिर का विनिर्माण दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश (1211-1266 सीई) के शासनकाल के दौरान एक गुजराती व्यापारी ने करवाया। हुसैन शाह शर्की (1447-1458) और सिकंदर लोधी (1489-1517) के शासन काल के दौरान एक बार फिर इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। जिसके बाद मुग़ल सम्राट अकबर के शासन काल के दौरान राजा मान सिंह ने इस मंदिर का फिर से निर्माण करवाया, परन्तु हिन्दू रूढ़िवादियों ने इसका बहिष्कार करते हुए कहा की वे अपने मुगलो के परिवार में शादी नहीं करते है जो की राजा मान सिंह ने किया। सं 1585 में राजा टोडर मल ने अकबर द्वारा की गयी वित्त सहायता से एक बार फिर इस मंदिर का निर्माण करवाया।
1669 CE में, सम्राट औरंगजेब ने भी इस मंदिर को नष्ट कर दिया था और इसके स्थान पर ज्ञान वापी मस्जिद का निर्माण करवाया था। तत्कालीन मंदिर में आज भी उसकी नींव के अवशेष देखने को मिलते है जिनमे स्तम्भ और मस्जिद के पीछे का भाग समिल्लित है।
सं 1742 में, मराठा शासक मल्हार राव होल्कर मस्जिद को नष्ट करने की योजना बनाई और उस स्थान पर विश्वेश्वर मंदिर को दुबारा से निर्माण किया। हालांकि, आंशिक रूप से उनकी ये योजना सफल नहीं हो पाई क्योकि लखनऊ के नवाबों ने, जो इस क्षेत्र का नियंत्रण करते थे, उनकी इस योजना में हस्तक्षेप किया था। 1750 के आस पास, जयपुर के महाराजा ने आस पास की भूमि के सर्वेक्षण के लिए एक कमीशन का गठन किया जिसका मुख्य उद्देश्य उस स्थल को खरीदकर उस पर काशी विश्वनाथ मंदिर का दुबारा से निर्माण करवाना था। हालांकि उनकी भी मंदिर के दुबारा निर्माण करने की योजना सफल न हो पाई। सं 1780 में, मल्हार होल्कर की पुत्रवधु अहिल्याबाई होल्कर ने वर्तमान मंदिर का निर्माण उस मस्जिद के सामने करवाया। सं 1828 में. बेजा बाई, ग्वालियर के मराठा शासक दौलत राव सिंधिया की विधवा ने ज्ञान वापी क्षेत्र में छत वाले कोलोनेड के 40 स्तम्भों का निर्माण कराया। 1833-1840 CE के दौरान, ज्ञान वापी कुंए की सीमा, घाट और आस पास के बाकी मंदिरों का निर्माण करवाया गया। सं 1841 में, नागपुर के भोसलो ने मंदिर के लिए चांदी का दान दिया था। सं 1859 में, महाराजा रंजीत सिंह ने मंदिर के गुबंद के निर्माण के लिए सोने का दान दिया था।
इस मंदिर की देख रेख पंडो के समूह और महन्तो के वंशानुगत के अधीन है। महंत देवी दत्त की मृत्यु के पश्चात, उनके उत्तरदिकरियो के बीच विवाद उत्पन्न हो गया था। सं 1900 में, उनके साले पंडित विशेश्वर दयाल तिवारी ने एक मुकदमा दायर किया, जिसमे उन्हें मंदिर का मुख्य पुजारी घोषित कर दिया गया।

दिव्य चरित्र :

सजीव पूर्ण के अनुसार, एक बार ब्रह्मा (सृष्टि के देवता) और विष्णु (सद्भाव के देवता) के बीच सृष्टि के प्रभुत्व को लेकर विवाद हो गया था। उनकी प्ररिक्षा लेने के लिए, शिव जी ने एक विशाल अंतहीन प्रकाश स्तम्भ, ज्योतिर्लिंग को सृष्टि के तीनो लोको से पार कर दिया। ब्रह्मा और विष्णु दोनों अपने अपने मार्ग चुनकर इस प्रकाश के अंत को खोजने के लिए ऊपर और नीचे की ओर चल दिए। ब्रह्मा ने झूठ कहा की उन्हें प्रकाश का अंत मिल गया जबकि विष्णु ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसके पश्चात शिव जी एक दूसरे प्रकाश स्तंभ के रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा को श्राप दिया की तुम्हे किसी भी समारोह में स्थान नहीं मिलेगा जबकि विष्णु अनंतकाल तक पूजे जायेंगे। ज्योतिर्लिंग एक परम अतुलनात्मक वास्तविकता है, जिसमे से शिव जी आंशिक रूप से प्रकट हुए थे।ज्योतिर्लिंग वे धार्मिक स्थल है जहां से शिव जी एक दिव्य प्रकाश के रूप में प्रकट होते है। शिव जी कुल 64 स्वरुप है परन्तु आप ज्योतिर्लिंग और इन स्वरूपों में भ्रमित मत हो जाइएगा। प्रत्येक ज्योतिर्लिंगों के स्थानों में उनके इष्टदेव का नाम लिया जाता है – प्रत्येक शिव के अलग रूप का प्रदर्शन करती है। इन सभी स्थाओ में, मुख्य छवि शिवलिंग की है जो अनादि और अनंत स्तंभ को दर्शाता है, और शिव जी की अनंत प्रकृति का प्रतीक है। इन बारह ज्योतिर्लिंगों में गुजरात के सोमनाथ, आंध्र प्रदेश के श्रीसैलम में स्थित मल्लिकार्जुन, मध्य प्रदेश के उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर, मध्य प्रदेश के ओम्कारेश्वर, हिमालय के केदारनाथ, महारष्ट्र के भीमाशंकर, उत्तर प्रदेश की वाराणसी में स्थित विश्वनाथ, महाराष्ट्र के त्रयम्बकेश्वर, वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, देवघर में देवगढ़, झारखण्ड, गुजरात के द्वारका में स्थित नागेश्वर, तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित रामेश्वर और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित गृष्णेश्वर शामिल है।
काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित मणिकर्णिका घाट एक शक्ति पीठ है, जिसे देवी माँ की साम्प्रदायिक पूजा करने के लिए प्रतिष्ठित स्थान माना जाता है। दक्ष यगा की पौराणिक कथाओ के मुताबिक, Shaivite साहित्य को उन महत्वपूर्ण साहित्यो में से एक माना जाता है जो शक्ति पीठ की उत्पत्ति की कहानी बताती है। कहा जाता है की सती देवी की मृत्यु के पश्चात शिव मणिकर्णिका के द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में आये थे।

मंदिर संरचना :

मंदिर परिसर में कई छोटे छोटे मंदिरों की श्रृंखला है, जो एक छोटी लाइन जिसे विश्वनाथ गली कहा जाता है और जो नदी के किनारे स्थित है में मौजूद है। मंदिर में स्थित मुख्य देवता का पवित्र लिंग 60 cm लम्बा है और उसकी परिधि 90 सेमी है जिसे चारो ओर से चांदी से ढका गया है। मुख्य मंदिर एक चौकोर आँगन है जिसके चारो ओर बाकी भगवानों के मंदिर स्थित है। इन छोटे मंदिरों में कालभैरव, धंदापानी, अविमुख्तेश्वर, विष्णु, विनायक, सनीश्वर, विरुपाक्ष और विरुपाक्ष गौरी समिल्लित है। मंदिर के भीतर एक छोटा कुआ स्थित है जिसे जनाना वापी व् ज्ञान वापी कहा जाता है। ज्ञान वापी कुआं मुख्य मंदिर के उत्तर में स्थित है और ऐसा माना जाता है की आक्रमण से शिवलिंग को बचाने के लिए इस कुंए का निर्माण किया गया था। कहा जाता है की मंदिर के मुख्य पुजारी शिव जी के आदेश पर आक्रमण के दौरान शिव लिंग के साथ कुंए में कूद गए थे।
मंदिर की संरचना के मुताबिक, इसमें एक सभा गृह और जनसमूह कक्ष है जो भीतरी गर्भ व् गर्भगृह की ओर जाता है। मंदिर में स्थित श्रद्धय लिंग काले रंग के पत्थर से बना हुआ है, जो गर्भ गृह में स्थापित है, जिसे एक चांदी के मंच पर रखा गया है। मंदिर की संरचना को तीन भागो में बांटा गया है। पहले में भगवान शिव व् विश्वनाथ का शिखर है, दूसरे में सुनहरा गुबंद और तीसरे विश्वनाथ के शीर्ष पर स्थित सुनहरा शिखर जिसके ऊपर एक त्रिशूल व् ध्वज है।
काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रतिदिन 3,000 पर्यटक आते है। कुछ विशेष अवसरों पर ये संख्या 1,000,000 और उससे अधिक तक पहुंच जाती है। मंदिर में 15.5 metre ऊंचा सोने का शिखर और सोने का गुबंद है। मंदिर में कुल तीन गुबंद है जिनो पूर्णतः सोने से बनाया गया है।

मंदिर का महत्त्व :

पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित, वाराणसी को पवित्रतम हिन्दू शहरों से एक माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर को हिंदू धर्म में पूजा के सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में से एक माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के भीतर शिव जी की ज्योतिर्लिंग है, जिसे विश्वेश्वरा व् विश्वनाथ भी कहा जाता है। विश्वेश्वरा ज्योतिर्लिंग का भारत के आध्यात्मिक इतिहास में विशेष और अद्वितीय महत्त्व है।
कई प्रमुख संत जिनमे आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी दयानन्द सरस्वती और गुरुनानक शामिल है इस स्थान का दौरा कर चुके है। इस मंदिर में जाना और पवित्र गंगा नदी में स्नान करना मोक्ष प्राप्त करने के मार्गो में से एक माना जाता है। जिसके कारण विश्व भर के सभी हिन्दू जीवनकाल में एक बार इस स्थान पर आने का प्रयास अवश्य करते है। यहाँ पार एक परंपरा है जिसके अनुसार तीर्थ यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों को अपनी एक इच्छा छोड़नी चाहिए और इस तीर्थ यात्रा में दक्षिण भारत के तमिलनाडु में स्थित रामेश्वरम की यात्रा भी समिल्लित है जहां लोग प्रार्थना करने के लिए गंगा नदी का पवित्र जल लेते है और मंदिर के पास की रेत को अपने साथ लाते है। काशी विश्वनाथ मण्डीर की अपार लोकप्रियता और पवित्रता के चलते, पुरे भारत में इस तरह की वास्तुकला से बने मंदिरों का निर्माण किया गया है। महापुरुष कहते है की शिव जी की पूजा करने वाले सच्चे भक्तो को मौत और संसार से मुक्ति मिल जाती है, शिव जी के भक्तो की मृत्यु होने पर उनके दूत सीधे उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत पर ले जाते है। ऐसी मान्यता है की जिनकी मृत्यु विश्वनाथ मंदिर में प्राकृतिक रूप से होती है उनके कानो में शिव जी स्वयं ही मोक्ष के मंत्र पढ़ते है।

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